उत्‍तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) अधिनियम, 1976

[उत्तर प्रदेश अधिनियम सं. 17 वर्ष 1976]

[उ.प्र. अधिनियम सं. 15 वर्ष 2013, उ.प्र. अधिनियम सं. 1 वर्ष 2015 और उ.प्र. अधिनियम सं. 4 वर्ष 2017 द्वारा यथा संशोधित]

राज्य के समस्त लोक सेवकों के सेवायोजन से सम्बद्ध विषयों के संबंध में विवादों के न्याय निर्णयन के निमित्त (अधिकरण का गठन) व्यवस्था करने के लिए भारत गणराज्‍य के सत्‍ताइसवें वर्ष में निम्‍नलिखित अधिनियम बनाया जाता है:

1. संक्षिप्‍त नाम, विस्‍तार, प्रारम्‍भ और लागू होना

(1) यह अधिनियम उत्तर प्रदेश लोक सेवा अधिकरण अधिनियम, 1976 कहा जायेगा।

(2) इसका विस्तार सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में होगा।

(3) यह 24 नवम्बर, 1975 से प्रवृत्त समझा जायेगा।

(4) यह धारा और धारा-2 और 6 सभी लोक सेवकों के सम्बन्ध में लागू होंगे जबकि अवशेष उपबन्ध लोक सेवकों के निम्‍नलि‍खित  वर्गों पर लागू न होंगे, अर्थात्–

(क) न्यायिक सेवा के सदस्य,

(ख) उच्च न्यायालय के या उच्‍च न्‍यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय के अधिकारी या सेवक,

(ग) राज्य विधान मंडल के किसी सदन के सचिवालय कर्मचारी वर्ग के सदस्य,

(घ) राज्य लोक सेवा आयोग के कर्मचारी वर्ग के सदस्य;

(ङ) औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 या संयुक्त प्रान्त औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में परिभाषित कर्मकार (वर्कमैन)

(च)  लोक आयुक्त के कर्मचारी वर्ग के सदस्य।

(छ)  अधिकरण के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सदस्य, अधिकारी या अन्य कर्मचारी।

2. परिभाषाएं

इस अधिनियम में-

(क) ‘नियत दिनांक’ का तात्पर्य 24 नवम्बर, 1975 से है;

(क-1)  ‘न्यायपीठ’ का तात्पर्य न्यायाधिकरण की न्यायपीठ से है,

(क-2)  ‘अध्यक्ष’ का तात्पर्य न्यायाधिकरण के अध्यक्ष से है,

(क-2क) ‘मुख्य न्यायाधीश’ का तात्पर्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से हैं;

(क-3)  ‘जिला न्यायाधीश’ का तात्पर्य बंगाल, आगरा और आसाम सिविल न्यायालय अधिनियम, 1887 के अर्थ में जिला न्यायाधीश से है,

(क-3क) ‘विधिक प्रतिनिधि’ का तात्‍पर्य ऐसे व्‍यक्ति से है जो किसी मृत व्‍यक्ति की सम्‍पदा का विधि की दृष्टि में प्रतिनिधित्‍व करता हो और इसके अन्‍तर्गत वह व्‍यक्ति भी है, जिसमें पेंशनिक, सेवानिवृत्ति, सेवान्‍त या अन्‍य लाभ प्राप्‍त करने का अधिकार निहित है।

(क-4) ‘सदस्य’ का तात्पर्य अधिकरण के न्यायिक या प्रशासकीय सदस्य से है और इसके अन्तर्गत अधिकरण का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी है,

(कक) ‘प्रस्‍तुतकर्ता अधिकारी’ में राज्‍य द्वारा नियुक्‍त सहायक प्रस्‍तुतकर्ता अधिकारी भी सम्मिलित होंगे।

(ख)  ‘लोक सेवक’ का तात्पर्य प्रत्येक ऐसे व्यक्ति से है, जो–

(एक) राज्य सरकार का, या

(दो) स्थानीय प्राधिकारी, जो छावनी बोर्ड न हो, या

(तीन) राज्य सरकार के स्वामित्व और नियंत्रण में कोई अन्य निगम जिसके अन्तर्गत कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा-3 में यथापरिभापित ऐसी कम्पनी भी है जिसमें पचास प्रतिशत से अन्‍यून समादत्‍त अंशपूंजी राज्‍य सरकार धारण करती है किन्‍तु इसके अन्‍तर्गत निम्‍नलिखित नहीं है:-

(1) किसी अन्य कम्पनी का वेतनभोगी या उसमें सेवारत कोई व्यक्ति, या

(2) अखिल भारतीय सेवाओं या अन्य केन्द्रीय सेवाओं का कोई सदस्य,

(खख) ‘सेवा सम्बन्धी मामले’ का तात्पर्य किसी लोक सेवक की सेवा की शर्तों से सम्बन्धित किसी मामले से है,

(ग) ‘अधिकरण’ का तात्पर्य धारा-3 के अधीन गठित अधिकरण से है,

(घ) ‘उपाध्यक्ष’ का तात्पर्य अधिकरण के उपाध्यक्ष (न्यायिक) या उपाध्यक्ष (प्रशासकीय) से है।

3. अधिकरण का गठन

(1) उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) (संशोधन) अधिनियम, 1992 के प्रारम्भ होने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, एक अधिकरण स्थापित करेगी जिसे राज्य लोकसेवा अधिकरण कहा जायेगा।

(2) अधिकरण में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष (न्यायिक), एक उपाध्यक्ष (प्रशासकीय) और न्यायिक या प्रशासकीय श्रेणी के कम से कम पांच-पांच अन्य सदस्य उतनी संख्या में होंगे जितनी राज्य सरकार अवधारित करे।

(3) कोई व्यक्ति अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के लिये अर्ह नहीं होगा जब तक कि,-

(क) वह किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश न रहा हो, या

(ख) उसने कम से कम दो वर्ष तक उपाध्यक्ष का पद धारण न किया हो, या

(ग) वह भारतीय प्रशासनिक सेवा का ऐसा सदस्य न रहा हो जिसने भारत सरकार के सचिव या उसके समकक्ष केन्द्रीय या राज्य सरकार के अधीन कोई अन्य पद धारण किया हो और जिसे न्याय व्यवस्था का पर्याप्त अनुभव हो।

(4) कोई व्यक्ति उपाध्यक्ष (न्यायिक) के रूप में नियुक्ति के लिये अर्ह नहीं होगा जब तक कि,-

(क) उसने सुपर टाइम स्केल के जिला न्यायाधीश का पद या उसके समकक्ष कोई अन्य पद धारण न किया हो; या

(ख) उसने कम से कम दो वर्ष तक न्यायिक सदस्य का पद धारण न किया हो।

[1][(4-क) कोई व्यक्ति उपाध्यक्ष (प्रशासकीय) के रूप में नियुक्ति के लिये अर्ह नहीं होगा जब तक कि,

(क) उसने कम से कम दो वर्ष तक प्रशासकीय सदस्य का पद धारण न किया हो; या

(ख) उसने कम से कम दो वर्ष तक भारत सरकार के अपर सचिव का पद या केन्द्रीय या किसी राज्य सरकार के अधीन ऐसा कोई पद धारण न किया हो जिसका वेतनमान भारत सरकार के अपर सचिव के वेतनमान से कम न हो और उसे राज्य सरकार की राय में न्याय व्यवस्था का पर्याप्त अनुभव न हो।]

(5) कोई व्यक्ति न्यायिक सदस्य के रूप में नियुक्ति के लिए अर्ह नहीं होगा जब तक कि उसने जिला न्यायाधीश या उसके समकक्ष कोई अन्य पद धारण न किया हो।

(6) भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी या प्रांतीय सिविल सेवा (कार्यकारी शाखा) के एक अधिकारी रूपये 18400-22400 के वेतनमान में या उससे ऊपर की नियुक्ति के लिए एक प्रशासनिक सदस्‍य के रूप में अर्हता प्राप्‍त की जाएगी, बशर्ते उसे न्‍याय वितरण में पर्याप्‍त अनुभव हो।

(7) अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और प्रत्येक अन्य सदस्य  मुख्य-न्यायाधीश के परामर्श से राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये जायेंगे;  जिसके लिए प्रस्ताव राज्य सरकार द्वारा आरम्भ किया जाएगा।

परन्तु कोई व्यक्ति यथास्थिति अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या अन्य सदस्य का पद धारण नहीं करेगा जब तक कि उसने यथास्थिति उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद से, या भारतीय प्रशासनिक सेवा से या उत्तर प्रदेश उच्चतर न्यायिक सेवा से या उपाध्यक्ष या सदस्य के रूप में सेवा से भिन्न किसी अन्य सेवा से, जिसमें वह सेवारत था, त्यागपत्र न दे दिया हो या सेवानिवृत्त न हो गया हो।

(8) अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या अन्य सदस्य इस रूप में अपना पद धारण करने के दिनांक से पाँच वर्ष की अवधि के लिए पद धारण करेगा, किन्तु वह पाँच वर्ष की एक और अवधि के लिए पुनर्नियुक्ति के लिये पात्र होगा,

परन्तु कोई भी अध्यक्ष, उपाध्‍यक्ष या सदस्‍य पद ग्रहण करने के बाद इस तरह पद धारण नहीं करेगा—

(क) अध्यक्ष के मामले में पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्‍त कर ली हो, और

(ख) उपाध्‍यक्ष या अन्‍य सदस्‍य के मामले में बासठ वर्ष की आयु प्राप्त कर ली हो।

(8-क) उत्‍तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) (संशोधन) अधिनियम, 2007 द्वारा यथा संशोधित उप-धारा (8) के उपबंध उक्‍त अधिनियम के प्रारम्‍भ पर अध्‍यक्ष, उपाध्‍यक्ष एवं अन्‍य सदस्‍य का पद धारण करने वाले पर भी लागू होंगे।

(8-ख) उत्‍तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) (संशोधन) अधिनियम, 2013 द्वारा यथा संशोधित उप-धारा (8) के उपबंध उक्‍त अधिनियम के प्रारम्‍भ पर अध्‍यक्ष का पद धारण करने वाले पर भी लागू होंगे।

[2][(8-ग) उत्‍तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) (संशोधन) अधिनियम, 2017 द्वारा यथा संशोधित उप-धारा (8) के उपबंध उक्‍त अधिनियम के प्रारम्‍भ पर अध्‍यक्ष, उपाध्‍यक्ष या एक सदस्‍य का पद धारण करने वाले पर भी लागू होंगे।]

(9) अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या कोई अन्य सदस्य राज्यपाल को सम्बोधित स्व-हस्ताक्षरित लिखित सूचना द्वारा अपना पद त्याग सकता है:

परन्तु अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या कोई अन्य सदस्य जब तक उन्हें राज्यपाल द्वारा पहले ही पद छोड़ने की अनुज्ञा नहीं दी जाती, सूचना की प्राप्ति के दिनांक से तीन मास की समाप्ति तक या उसके उत्तराधिकारी के रूप में सम्यक रूप से नियुक्त व्यक्ति के पद संभालने तक या अपनी पदावधि की समाप्ति तक, इनमें से जो भी सबसे पहले हो, अपना पद धारण करता रहेगा।

(10) अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या कोई अन्य सदस्य, विहित रीति से मुख्य न्यायाधीश द्वारा या उच्च न्यायालय के किसी ऐसे न्यायाधीश द्वारा, जिसे मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामनिर्दिष्ट किया जाय, की गई जाँच के पश्चात् जिसमें यथास्थिति ऐसे अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या अन्य सदस्य को उसके विरुद्ध लगाये गये आरोपों की सूचना दी गई हो और उन आरोपों के सम्बन्ध में सुनवाई या युक्तियुक्त अवसर दिया गया हो, साबित दुर्व्‍यवहार या अक्षमता के आधार पर राज्यपाल द्वारा दिये गये किसी आदेश के सिवाय अपने पद से हटाया नहीं जायेगा।

(11) पद पर न रह जाने पर अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या अन्य सदस्य राज्य सरकार के, या राज्य सरकार के नियन्त्रणाधीन किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के, या राज्य सरकार के स्वामित्वाधीन या नियंत्रणाधीन किसी निगम या सोसाइटी के अधीन अग्रेतर नियोजन के लिए पात्र नहीं होंगे:

परन्त इस अधिनियम के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हए, कोई उपाध्यक्ष, अध्यक्ष के रूप में नियक्ति के लिए पात्र होगा और कोई सदस्य, उपाध्यक्ष या अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के लिये पात्र होगा।

(12) पद पर न रह जाने पर, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष या अन्य सदस्य अधिकरण के समक्ष किसी व्यक्ति की ओर से न उपस्थित होगा, न कार्य करेगा और न अभिवचन करेगा।

(13) अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों को देय वेतन और भत्ते और उनकी सेवा की अन्य शर्ते ऐसी होंगी जैसी राज्य सरकार द्वारा समय-समय पर अवधारित की जायें।

(14) जहाँ अध्यक्ष अनुपस्थिति या अस्वस्थता या किसी अन्य कारण से अपने कृत्यों का निर्वहन करने में असमर्थ हो, या जहाँ अध्यक्ष का पद उसकी मृत्यु, पदत्याग या अन्यथा रिक्त हो जाय वहाँ उपाध्यक्ष, और जहाँ उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त हो वहाँ ऐसा अन्य सदस्य जैसा राज्य सरकार विशेष या सामान्य आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे, अध्यक्ष के अपने कर्तव्यों के पुनः संभालने, या यथास्थिति इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार नियुक्त अध्यक्ष के अपने पद का भार संभालने तक, अध्यक्ष के कृत्यों का निर्वहन करेगा।

3-क.  अधिकरण के कर्मचारी

(1) राज्य सरकार अधिकरण की, उसके कृत्यों के निर्वहन में सहायता करने के लिए, अपेक्षित अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों की प्रकृति और श्रेणियों का अवधारण करेगी और अधिकरण के लिये ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों की व्यवस्था करेगी जैसा वह उचित समझे।

(2) अधिकरण के अधिकारी और अन्य कर्मचारी, अध्यक्ष के सामान्य अधीक्षण के अधीन अपने कृत्यों का निर्वहन करेंगे।

(3) अधिकरण के अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों के वेतन और भत्ते और उनकी सेवा शर्ते ऐसी होंगी जैसी विहित की जायें।

4. अधिकरण को दावा निर्दिष्ट करना

(1) इस अधिनियम के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुये, कोई व्यक्ति, जो लोक सेवक हो या रहा हो और अधिकरण की अधिकारिता के भीतर किसी सेवा संबंधी मामले के सम्बन्ध में किसी आदेश से व्यथित हो, अपनी शिकायत को दूर कराने के लिये अधिकरण को दावा निर्दिष्ट कर सकेगा।

स्पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजन के लिये “आदेश” का तात्पर्य राज्य सरकार या धारा-2 के खण्ड (ख) में निर्दिष्ट किसी स्थानीय प्राधिकारी या किसी अन्य निगम या कम्पनी द्वारा या राज्य सरकार या ऐसे स्थानीय प्राधिकारी या निगम या कम्पनी के किसी अधिकारी, समिति या अन्य निकाय या अधिकरण द्वारा दिये गये किसी आदेश या लोप या निष्क्रियता से है:

परन्तु यह कि किसी करार के निबन्धनों के अधीन रहते हुये, किसी लोक सेवक के स्थानान्तरण से उत्पन्न होने वाले किसी दावा के बारे में कोई निर्देश नहीं किया जायेगा:

परन्तु यह और कि किसी लोक सेवक की मृत्यु हो जाने की दशा में, उसके विधिक प्रतिनिधि, और जहां दो या दो से अधिक विधिक प्रतिनिधि हों, सभी संयुक्त रूप से, ऐसे मृत लोक सेवक को देय वेतन, भत्ता, ग्रेच्युटी, भविष्य निधि, पेंशन तथा अन्य सेवा सम्बन्धी आर्थिक लाभों हेतु अधिकरण के समक्ष दावा निर्दिष्ट कर सकेंगे।

(2) उपधारा (1) के अधीन प्रत्येक निर्देश ऐसे प्ररूप में होगा और उसके साथ ऐसे दस्तावेज या अन्य साक्ष्य और ऐसे निर्देश के दाखिल किये जाने के संबंध में ऐसी फीस और आदेशिकाओं के निष्पादन या तामील के लिए ऐसी अन्य फीस, को विहित की जाय, संलग्न की जायेगी।

(3) उपधारा (1) के अधीन निर्देश की प्राप्ति पर, यदि अधिकरण का, ऐसी जांच करने के पश्चात् जो वह आवश्यक समझे, यह समाधान हो जाय कि संदर्भ उसके न्याय निर्णयन या विचारण के लिये उचित है, तो वह निर्देश ग्रहण करेगा और यदि अधिकरण का इस प्रकार समाधान नहीं होता है तो वह इसके कारणों को अभिलिखित करने के पश्चात् उसे संक्षेपतः नामंजूर कर देगा।

(4) जहां कोई निर्देश, उपधारा (3) के अधीन अधिकरण द्वारा ग्रहण कर लिया गया हो, वहां ऐसे निर्देश की विषयवस्तु से सम्बन्धित शिकायतों को दूर करने के बारे में सुसंगत सेवा नियमावली या विनियम या किसी संविदा के अधीन ऐसी प्रत्येक कार्यवाही का, जो ऐसे निर्देश ग्रहण किये जाने के पूर्व लम्बित है, उपशमन हो जायेगा और उसके सिवाय जैसा अधिकरण निर्देश दे, ऐसे विषय के सम्बन्ध में इसके पश्चात् कोई अपील या अभ्यावेदन ऐसी नियमावली, विनियम या संविदा के अधीन ग्रहण नहीं किया जायेगा।

(5) अधिकरण सामान्यतया कोई निर्देश तब तक ग्रहण नहीं करेगा जब तक कि उसका यह समाधान न हो जाए कि लोक सेवक ने सुसंगत सेवा नियमावली विनियम या संविदा के अधीन शिकायतों को दूर करने के बारे में उसे उपलब्ध समस्त उपचारों का उपयोग कर लिया है।

(6) उपधारा (5) के प्रयोजनों के लिए, यदि राज्य सरकार या उसके किसी प्राधिकारी या अधिकारी या ऐसा आदेश पारित करने के लिये सक्षम अन्य व्यक्ति द्वारा, ऐसी नियमावली विनियम या संविदा के अधीन शिकायत के संबंध में किसी लोक सेवक द्वारा प्रस्तुत की गयी अपील या दिये गये अभ्यावेदन को निरस्त करते हुए कोई अंतिम आदेश दिया गया हो, तो यह समझा जायेगा कि लोक सेवक ने उपलब्ध समस्त उपचारों का उपयोग कर लिया है:

परन्तु यह कि जहां लोक सेवक द्वारा प्रस्तुत की गयी अपील या दिये गये अभ्यावेदन के सम्बन्ध में राज्य सरकार, प्राधिकारी या अधिकारी या ऐस आदेश पारित करने के लिए सक्षम अन्य व्यक्ति द्वारा ऐसी अपील प्रस्तुत करने या अभ्यावेदन देने के छः माह के भीतर कोई अन्तिम आदेश न दिया गया हो, वहां लोक सेवक रजिस्ट्रीकृत डाक से लिखित सूचना द्वारा ऐसे सक्षम प्राधिकारी से आदेश पारित करने की अपेक्षा कर सकता है और यदि ऐसी सूचना की तामील के एक मास के भीतर आदेश पारित नहीं किया जाता है तो यह समझा जायेगा कि लोक सेवक ने उपलब्ध समस्त उपचारों का उपयोग कर लिया है।

(7) उपधारा (5) और (6) के प्रयोजनों के लिए यदि राज्यपाल या किसी अन्य कृत्यकारी को कोई अभ्यावेदन प्रस्तुत करने के लिए कोई उपचार किसी लोक सेवक को उपलब्ध है तो ऐसे उपचार को उपलब्‍ध उपचारों में से कोई उपचार तब तक नहीं समझा जायेगा, जब तक कि लोक सेवक ऐसा अभ्यावेदन प्रस्तुत करने का चयन नहीं करता है।

4-क. अधिकरण द्वारा निर्देश की सुनवाई

(1) अध्यक्ष दावों के ऐसे निर्देशों और अन्य विषयों के, जैसे उसके द्वारा विनिर्दिष्ट किये जायें, निस्तारण के लिए समय-समय पर न्यायपीठों का गठन कर सकता है जिसमें एक सदस्य या दो सदस्य होंगे।

(2) अध्यक्ष के लिये यह विधिपूर्ण होगा कि वह ऐसे किसी एक न्यायपीठ के सदस्य के रूप में स्वयं को नाम निर्दिष्ट करे।

(3) दो सदस्यों से गठित न्यायपीठ में एक न्यायिक सदस्य और प्रशासकीय सदस्य होगा।

स्‍पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए अध्यक्ष, जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश या जिला न्यायाधीश रहा हो या कोई उपाध्यक्ष, जो जिला न्यायाधीश रहा हो, न्यायिक सदस्य समझा जायेगा और कोई अध्यक्ष या उपाध्यक्ष, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा का सदस्य या रू0 18,400-22,400 या उससे अधिक के वेतनमान में प्रान्तीय सिविल सेवा (कार्यकारी शाखा) का कोई अधिकारी रहा हो, प्रशासकीय सदस्य समझा जायेगा।

(4) अधिकरण की अधिकारिता, शक्ति और प्राधिकार का प्रयोग ऐसे किसी न्यायपीठ द्वारा किया जा सकता है और ऐसी किसी न्यायपीठ द्वारा ऐसी अधिकारिता, शक्तियाँ एवं प्राधिकार का प्रयोग करके किये गये किसी कार्य को अधिकरण द्वारा कृत-कार्य समझा जायेगा।

(5)(क) अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी मामले से सम्बन्धित किसी आदेश के विरुद्ध दावे के किसी निदेश की सुनवाई और उसका अन्तिम विनिश्चय दो सदस्यों से गठित न्यायपीठ द्वारा किया जायेगा:

परन्तु एक सदस्य द्वारा साक्ष्य लिया जा सकता है और उसकी कार्यवाही को संचालित किया जा सकता है।

(ख) खण्ड (क) में निर्दिष्ट दावे के निर्देश से भिन्न दावे के निर्देश की सुनवाई और उसका अंतिम रूप से विनिश्चय एक सदस्य से गठित न्यायपीठ द्वारा किया जा सकता है।

(ग) अध्यक्ष, स्‍वप्रेरणा से या दावे के किसी निर्देश के किसी पक्षकार के आवेदन पर, किसी मामले का अन्तरण एक न्यायपीठ से दूसरी न्यायपीठ को कर सकता है।

(6) जहां दो सदस्यों से गठित किसी न्यायपीठ के सदस्य किसी मामले में सहमत न हों तो मामला अध्यक्ष द्वारा नाम निर्दिष्ट किसी अन्य सदस्य को निर्दिष्ट किया जायेगा और ऐसे अन्य सदस्य का विनिश्चय अंतिम और प्रभावी होगा।

(7) इस अधिनियम के अधीन कार्य सम्पादन के लिये अधिकरण, उसकी न्यायपीठ और सदस्यों की बैठक लखनऊ में या ऐसे अन्य स्थान पर, जैसा राज्य सरकार निर्देश दे, होगी।

5. अधिकरण की शक्ति एवं प्रक्रिया

(1) (क) अधिकरण सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (अधिनियम संख्या 5 सन् 1908) में, निर्धारित प्रक्रिया या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (अधिनियम संख्या 1 सन् 1872) में दिये गये साक्ष्य नियमों से बाध्‍य नहीं होगा, किन्तु नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों द्वारा मार्गदर्शित होगा, और इस धारा के उपबन्धों और धारा 7 के अधीन बनाये गये किन्हीं नियमों के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, अधिकरण को अपनी प्रक्रिया (जिसमें अपनी बैठक का स्थान और समय नियत करना और यह विनिश्चित करना भी सम्मिलित है कि बैठक सार्वजनिक या असार्वजनिक तौर पर की जाए) विनियमित करने की शक्ति होगीः

परन्तु जहाँ किसी निर्देश की विषयवस्तु के सम्बन्ध में, सक्षम न्यायालय ने पहले ही डिक्री या आदेश पारित कर दिया है या समादेश (रिट) जारी कर दिया है या निदेश दे दिया है और ऐसी डिक्री, आदेश, समादेश या निदेश अंतिम हो गया है, वहाँ पूर्व-न्याय का सिद्धान्त लागू होगा।

(ख) धारा 4 के अधीन किसी निर्देश पर परिसीमा अधिनियम, 1963 (अधिनियम संख्या 36 सन् 1963) के उपबन्ध, यथावश्यक परिवर्तन सहित, लागू होंगे मानो निर्देश सिविल न्यायालय में दाखिल किया गया कोई वाद हो, किन्तु-

(1) उक्त अधिनियम की अनुसूची में विहित परिसीमा-काल के होते हुए भी; ऐसे निर्देश के लिये परिसीमा काल एक वर्ष होगा;

(2) परिसीमा-काल की संगणना करने में, उस दिनाँक से जब लोक सेवक अपनी सेवा की शर्तों को विनियमित करने वाले नियमों या आदेशों के अनुसार कोई अभ्यावेदन करता है या कोई अपील, पुनरीक्षण या कोई अन्य याचिका (जो राज्यपाल को दिया गया विनिवेदन न हो) प्रस्तुत करता है, प्रारंभ होने वाली, और उस दिनांक को जब ऐसे लोक-सेवक को, यथास्थिति, ऐसे अभ्यावेदन, अपील, पुनरीक्षण या याचिका पर दिये गये अंतिम आदेश की जानकारी हो, समाप्त होने वाली अवधि को सम्मिलित नहीं किया जायेगा।

परन्तु कोई निर्देश जिसके लिए परिसीमा अधिनियम, 1963 द्वारा विहित परिसीमाकाल एक वर्ष से अधिक हो, धारा-4 के अधीन निर्देश उस अधिनियम द्वारा विहित अवधि के भीतर या उत्तर प्रदेश लोक-सेवा (अधिकरण) (संशोधन) अधिनियम, 1985 के प्रारंभ से ठीक एक वर्ष के भीतर, इसमें जो भी अवधि पहले समाप्त होती हो, किया जा सकता है।

परन्तु यह और कि उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) (संशोधन) अधिनियम, 1985 द्वारा यथाप्रतिस्थापित इस खण्ड की किसी बात का कोई प्रभाव किसी ऐसे निर्देश पर नहीं पड़ेगा जो उक्त अधिनियम के प्रारंभ होने से पूर्व किया गया और विचाराधीन हो।

(2) अधिकरण प्रत्येक निर्देश को यथाशीघ्र विनिश्चित करेगा और साधारणतया प्रत्येक मामला दस्तावेजों और अभ्यावेदनों के परिशीलन और ‘मौखिक या लिखित बहस’, यदि कोई हो, के आधार पर विनिश्चित किया जायेगा।

(3) अधिकरण साक्ष्य में, किसी मूल दस्तावेज के बदले, किसी राजपत्रित अधिकारी या नोटरी द्वारा प्रमाणित उसकी प्रतिलिपि ग्रहण कर सकता है।

(4) अधिकरण साधारणतया मौखिक साक्ष्य पेश करने को न कहेगा और न अनुज्ञा देगा, और यदि आवश्यक हो, किसी पक्षकार से शपथ-पत्र दाखिल करने की अपेक्षा कर सकता है।

(5) अधिकरण को इस अधिनियम के अधीन कोई जाँच करने के प्रयोजनार्थ उपधारा (1) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, निम्‍नलि‍खित बातों के संबंध में वही शक्तियाँ होंगी जो किसी वाद पर विचार करते समय सिविल प्रक्रिया संहिता (अधिनियम संख्या 5, सन् 1908) के अधीन किसी सिविल न्यायालय में निहित है:

(क) किसी व्यक्ति को समन करना और उसे उपस्थित होने के लिए बाध्य करना और शपथ पर उसकी परीक्षा करना;

(ख) दस्तावेजों को प्रकट और प्रस्तुत करने की अपेक्षा करना;

(ग) शपथ-पत्रों पर साक्ष्य प्राप्त करना;

(घ) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (अधिनियम सं० 1 सन् 1872) की धारा-123 और 124 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, किसी कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपि की अभियाचना करना;

(ङ) साक्षियों या दस्तावेजों की परीक्षा के लिए कमीशन जारी करना;

(च) विधिपूर्ण करार, समझौता या तुष्टि को अभिलिखित करना और तदनुसार आदेश देना;

(छ) अपने विनिश्चय का पुनर्विलोकन करना;

(ज) व्यतिक्रम के लिए कोई निर्देश खारिज करना या उस पर एक-पक्षीय विनिश्चय देना;

(झ) व्यक्तिक्रम के लिये खारिज किये गये किसी आदेश या अपने द्वारा दिये गये एकपक्षीय आदेश को अपास्त करना;

(ञ) किसी निदेश पर अंतिम विनिश्चय होने तक, ऐसी शर्तों पर, यदि कोई हो, जिन्हें अधिरोपित करना वह उचित समझें, अन्तर्वर्ती आदेश देना;

(ट) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाये।

(5-क)  अधिकरण किसी निर्देश से सम्बन्धित किसी कार्यवाही पर या कार्यवाही में अन्तरिम आदेश (व्यादेश या स्थगन के रूप में किसी अन्य रीति से) तब तक नहीं देगा जब तक कि-

(क) ऐसे निर्देश की और अन्तरिम आदेश के लिए आवेदन की प्रतिलिपियां, ऐसे अन्तरिम आदेश के लिये दलील के समर्थन में सभी दस्तावेजों के साथ, उस पक्षकार को न दे दी जाए जिसके विरुद्ध ऐसी याचिका प्रस्तुत की जाती है और

(ख) ऐसे पक्षकार को उत्तर प्रस्तुत करने के लिए कम से कम चौदह दिन का समय न दे दिया जाय और उस विषय में सुनवाई का अवसर न दे दिया जाये:

परन्तु अधिकरण खण्ड (क) और (ख) की अपेक्षाओं को अभिमुक्त कर सकता है और यदि उसका समाधान हो जाता है कि प्रार्थी के किसी हानि का, जिसकी क्षतिपूर्ति धन द्वारा पर्याप्त रूप से नहीं की जा सकती है निवारण करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है तो कारण को अभिलिखित करते हुए अपवाद स्वरूप अन्तरिम आदेश दे सकता है किन्तु कोई ऐसा अन्तरिम आदेश, यदि उसे पहले अभिशून्य कर दिया जाये, उस दिनांक से जब वह दिया जाय, चौदह दिन की अवधि की समाप्ति पर प्रभावी न रह जायेगा, जब तक कि उक्त अवधि की समाप्ति के पूर्व उक्त अपेक्षाओं का अनुपालन न किया गया हो और अधिकरण ने उस आदेश के पूर्व प्रवर्तन को जारी न रखा हो।

(5-ख)  पूर्ववर्ती उपधाराओं में किसी बात के होते हुए भी, अधिकरण किसी लोक सेवक के निलम्बन, पदच्युत, हटाने, पदावनति, सेवा समाप्ति, अनिवार्य सेवानिवृत्ति या प्रत्यावर्तन के लिए सेवायोजक द्वारा दिये गये या दिये जाने के लिए तात्पर्यित आदेश के सम्बन्ध में अन्तरिम आदेश (व्यादेश या स्थगन के रूप में या किसी अन्य रीति से) देने की शक्ति नहीं होगी और ऐसे विषयों के सम्बन्ध में प्रत्येक अन्तरिम आदेश (व्यादेश या स्थगन के रूप में या किसी अन्य रीति से) जिसे अधिकरण ने इस उपधारा के प्रारंभ के दिनांक के पूर्व दिया था और जो उस दिनांक को प्रवृत्त था, अभिशून्य हो जायेगा।

(5-ग)  पूर्ववर्ती उपधाराओं में किसी बात के होते हुए भी, अधिकरण को किसी लोक सेवक के विरुद्ध सेवायोजक द्वारा की गयी प्रतिकूल प्रविष्टि के सम्बन्ध में अन्तरिम आदेश (व्यादेश या स्थगन के रूप में या किसी अन्य रीति से) देने की शक्ति नहीं होगी और ऐसी प्रतिकूल प्रविष्टि के सम्बन्ध में प्रत्येक अन्तरिम आदेश (व्यादेश या स्थगन के रूप में या किसी अन्य रीति से) जिसे अधिकरण ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) (संशोधन) अधिनियम, 2000 के प्रारम्भ होने से पूर्व दिया था और जो ऐसे प्रारम्भ होने के दिनांक को प्रवृत्त है, अभिशून्य हो जायगा।

(6) अधिकरण द्वारा की गई घोषणा दावेदार और उसके सेवायोजक पर तथा किसी ऐसे अन्य लोक सेवक पर, जिसे किसी दावा के संबंध में जिससे उसके हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो, उसके विरूद्ध अभ्यावेदन देने का अवसर दिया गया हो, बाध्यकारी होगी और उसका प्रभाव किसी विधि न्यायालय द्वारा की गई घोषणा के समान होगा।

(7)  किसी निर्देश को अन्तिम रूप से निस्तारित करने वाले अधिकरण के आदेश का निष्पादन उसी रीति से किया जायेगा जिस रीति से निर्देश से संगत, दावेदार के सेवायोजन के किसी मामले में, उसके द्वारा प्रस्तुत किसी अपील या अभ्यावेदन में, शिकायतों को दूर करने से संबंधित सुसंगत सेवा नियमों के अधीन ऐसा आदेश देने के लिए सक्षम, राज्य सरकार, या अन्य प्राधिकारी या अधिकारी, या अन्य व्यक्ति के ऐसे अन्तिम आदेश का निष्पादन किया जाता।

(8) (क) सेवायोजक अधिकरण के समक्ष अपना मामला प्रस्तुत करने के लिए कोई लोक सेवक या विधि व्यवसायी नियुक्त कर सकता है जो प्रस्तुतकर्ता अधिकारी कहलायेगा।

(ख) लोक सेवक अपनी ओर से अधिकरण के समक्ष अपना मामला प्रस्तुत करने के लिए किसी अन्य लोक सेवक की सहायता ले सकता है, किन्तु इस प्रयोजनार्थ कोई विधि व्यवसायी केवल उस दशा में रख सकेगा जबकि-

(1) सेवायोजक द्वारा नियुक्त प्रस्तुतकर्ता कोई विधि व्यवसायी हो, या

(2) अधिकरण मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, ऐसी अनुज्ञा दे।

(9) अधिकरण के समक्ष किसी कार्यवाही को भारतीय दण्ड संहिता (अधिनियम संख्या 45, सन् 1860) की धारा-193,  219 और 228 के अन्तर्गत न्यायिक कार्यवाही समझा जायेगा।

(10) किसी निर्देश पर या किसी निर्देश के उत्तर पर या किसी आवेदन-पत्र पर या तो नियुक्त प्राधिकारी या प्रस्तुतकर्ता अधिकारी या जहाँ नियुक्ति अधिकारी राज्यपाल हो वहाँ राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत उप-सचिव से अनिम्न पद के किसी अधिकारी द्वारा और किसी स्थानीय प्राधिकारी, निगम या कम्पनी की स्थिति में, उसके मुख्य कार्यपालक अधिकारी या सचिव द्वारा, यथास्थिति, हस्ताक्षर किया जा सकता है।

5-क. अवमान के लिए शास्ति की शक्ति

न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 के अधीन उच्च न्यायालय की, उसके अधीनस्थ अवमान के लिए न्यायालयों के अवमान के संबंध में, अधिकारिता, शक्तियों, और प्राधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, अधिकरण को अपने अवमान के संबंध में वही अधिकारिता, शक्तियाँ और प्राधिकार होंगे और उनका प्रयोग किया जायेगा जो कि उच्च न्यायालय को अपने अवमान के सम्बन्ध में प्राप्त है और उसके द्वारा अपने अवमान के संबंध में, उनका प्रयोग किया जा सकता है, और इस प्रयोजन के लिए न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 के उपबन्ध, यथावश्यक परिवर्तन सहित, निम्‍नलि‍खित  उपान्तरों के अधीन, लागू होंगे, अर्थात्:

(क) उसमें उच्च न्यायालय उसके मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों के प्रति निर्देश को क्रमशः अधिकरण, और उसके अध्यक्ष और अन्य सदस्यों के प्रति निर्देश माना जाएगा।

(ख) उक्त अधिनियम की धारा-15 में महाधिवक्ता के प्रति निर्देश को, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा-24 की उपधारा (1) के अधीन राज्य सरकार द्वारा नियुक्त लोक अभियोजक या ऐसे अन्य विधि अधिकारी के, जिसे राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, प्रति निर्देश समझा जायेगा,

(ग) उक्त अधिनियम की धारा-19 में-

(1) उपधारा (1) के स्थान पर निम्‍नलि‍खित  उपधारा रख दी जायेगी अर्थात्:

“(एक) अवमान के लिये शास्ति देने की अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए अधिकरण द्वारा दिये गये किसी आदेश या विनिश्चय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में साधिकार अपील होगी।’’

(2) उपधारा (4) के स्थान पर निम्‍नलि‍खित  उपधारा रख दी जायेगी:

‘‘(4) उपधारा (1) के अधीन अपील उस आदेश के दिनांक से जिसके विरुद्ध अपील की जाये, साठ दिन के भीतर की जायेगी।’’

6. वादों का वर्जन

(1) किसी व्यक्ति के, जिसके अन्तर्गत धारा-1 की उपधारा (4) के खण्ड (क) से (छ) में विनिर्दिष्ट वर्गों के व्यक्ति भी है, अनुरोध पर जो लोक सेवक है या रह चुका है सेवायोजन से संबंधित किसी बात के सम्बन्ध में किसी अनुतोष के लिए, कोई वाद या राज्य सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकारी या किसी संविधिक निगम या कम्पनी के विरुद्ध ग्राह्य नहीं होगा।

(2) नियत दिनांक से ठीक पूर्ववर्ती दिनांक को उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय के समक्ष विचाराधीन समान अनुतोष के लिए सभी वाद, और ऐसे वादों से प्रोदभूत होने वाली सभी अपील, पुनरीक्षण, के लिए आवेदन-पत्र और अन्य अनुषंगी या सहायक कार्यवाहियाँ (जिसके अंतर्गत सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908, (अधिनियम, संख्या 5, सन् 1908) की प्रथम अनुसूची के आदेश 39 के अधीन सभी कार्यवाहियाँ भी हैं) और अकिंचन के रूप में समान अनुतोष के लिए वाद या अपील प्रस्तुत करने की अनुज्ञा के लिए सभी आवेदन-पत्र और उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन सभी पुनरीक्षण (अंतवर्ती आदेशों से उत्पन्न) उपशमित हो जायेंगे, और उनके अभिलेख अधिकरण को अन्तरित कर दिये जायेंगे और तदुपरान्त अधिकरण उन मामलों पर उसे विनिश्चय देगा, मानो वे उसे धारा-4 के अधीन निर्दिष्ट दावे हों।

परन्तु अधिकरण, धारा-5 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, उस प्रक्रम से कार्यवाही फिर से प्रारम्भ करेगा, जिस पर मामला उपयुक्त प्रकार से उपशमित किया गया था और न्यायालय में प्रस्तुत अभिवचन, पेश किये गए किसी मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य पर, कार्यवाही करेगा मानो वह अधिकरण के समक्ष प्रस्तुत या पेश किए गए थे।

(3) नियत दिनाँक के ठीक पूर्ववर्ती दिनांक को उच्च न्यायालय के समक्ष ऐसे वादों से प्रोदभूत होने वाली सभी विचाराधीन अपीलों की सुनवाई और निस्तारण उस न्यायालय द्वारा पूर्ववत् किया जायेगा मानो यह अधिनियम प्रवृत्त न हुआ हो;

परन्तु यदि उच्च न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (अधिनियम संख्या 5, सन् 1908) की प्रथम अनुसूची के आदेश 41 के नियम-23 या 25 के अधीन मामला प्रतिप्रेषित या प्रतिनिर्देशित करना आवश्यक समझे तो प्रतिप्रेषण या निर्देश का आदेश सम्बद्ध अधीनस्थ न्यायालय के बजाय अधिकरण को सम्बोधित होगा और तदुपरान्त अधिकरण, उच्च न्यायालय के निर्देश के अधीन रहते हुए, मामला या विवाद पर उसी प्रकार विनिश्चय देगा मानो वह धारा-4 के अधीन उसे निर्दिष्ट कोई दावा हो।

6-क. अभिकरण के सदस्य और कर्मचारीवृन्द लोक सेवक होंगे

भारतीय दण्ड की धारा-21 के अर्थान्तर्गत अधिकरण के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सदस्य, अधिकारी और कर्मचारी लोक सेवक समझे जायेंगे।

6-ख. सदभावपूर्वक की गई कार्यवाही का संरक्षण

इस अधिनियम या उसके अधीन बनाये गये नियमों के उपबन्धों के अनुसरण में सद्भावपूर्वक की गयी या की जाने के लिए आशयित किसी बात के लिए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सदस्य या किसी अन्य व्यक्ति के वाद, अभियोजन या अन्य विधिक कार्यवाही नहीं की जायेगी।

6-ग. सदस्य न्यायाधीश होंगे

अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य, न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम, 1985 और न्यायिक अधिकारी संरक्षण अधिनियम, 1850 के प्रयोजनों के लिए न्यायाधीश समझे जायेंगे।

7. नियम बनाने की शक्ति

(1) राज्य सरकार, इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए अधिसूचना द्वारा नियम बना सकती है।

(2) विशेषतः और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियमों में निम्‍नलि‍खित  सभी या किसी विषय की व्यवस्था की जा सकती है,

अर्थात्:

(क) अधिकरण की शक्तियाँ और प्रक्रिया,

(ख) न्यायपीठों का गठन और उनके बीच कार्य का वितरण,

(ग) वह प्ररूप जिसमें किसी दावे का निर्देश किया जा सकता है, दस्तावेज और अन्य साक्ष्य जो ऐसे निर्देश के साथ संलग्न होंगे और ऐसे निर्देश को दाखिल किये जाने के सम्बन्ध में या आदेशिकाओं के निष्पादन या तामील के लिए देय फीस।

(घ) अधिकरण के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सदस्यों, अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को देय वेतन और भत्ते और सेवा की अन्य शर्ते,

(ङ) अध्यक्ष की वित्तीय और प्रशासकीय शक्तियाँ।

(च) कोई अन्य विषय जिसके लिये इस अधिनियम में अपर्याप्त उपबन्ध हो और राज्य सरकार उस निमित्त उपबन्ध बनाना आवश्यक या समीचीन समझे।

(3) उपधारा (2) के खण्ड (घ) के अधीन नियम बनाने की शक्ति के अन्तर्गत ऐसा कोई नियम किसी भूतलक्षी तिथि से, जो उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) (संशोधन) अधिनियम, 1992 के प्रारम्भ के दिनांक से पहले का नहीं हो, बनाने की शक्ति भी है, किन्तु किसी ऐसे नियम को ऐसा भूतलक्षी प्रभाव नहीं दिया जायेगा जिससे किसी ऐसे व्यक्ति के, जिन प नियम प्रयोज्य हो, हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े।

8. निरसन, अपवाद और अस्थायी उपबन्ध

(1) उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) अध्यादेश, 1976 (उ0प्र0 अध्यादेश संख्या 8 सन् 1976) एतद्द्वारा निरसित किया जाता है।

(2) ऐसे निरसन या उपधारा (1) में उल्लिखित अध्यादेश द्वारा उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अधिकरण) अध्यादेश, 1975 के निरसन के होते हुए भी, उक्त अध्यादेशों के अधीन किया गया कोई कार्य या की गयी कोई कार्यवाही इस अधिनियम के अधीन किया गया कार्य या की गयी कार्यवाही समझी जायेगी मानो यह अधिनियम सभी सारभूत समय पर प्रवृत्त था।

(3) इस अधिनियम की धारा-5 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) के परन्तुक में उल्लिखित आदेश और इस अधिनियम की धारा-6 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट आवेदन-पत्रों के संबंध में, जो 1975 के उक्त अध्यादेश के तत्समान उपबन्धों में उल्लिखित न थे, नियत दिनांक के प्रति निर्देश का अर्थ 16 फरवरी, 1976 के प्रति निर्देश से लगाया जाएगा।

अनुसूची

[धारा-4-क (5) (क) देखिये]

मामले जिनकी सुनवाई और अन्तिम विनिश्चय, दो सदस्यों से गठित न्यायपीठ द्वारा किया जायेगा।

1. निम्‍नलि‍खित  से सम्बन्धित किसी आदेश के विरुद्ध दावों के समस्त निर्देश:

(क) किसी लोक सेवक की पदोन्नति, ज्येष्ठता, जन्मतिथि या अधिवर्षिता का दिनांक;

(ख) धारा-2 के खण्ड (ख) में निर्दिष्ट किसी सेवा में विनियमितीकरण;

(ग) किसी लोक सेवक की पदच्युति, हटाये जाने, प्रत्यावर्तन या पदावनति; वेतनवृद्धि पर स्थायी रोक, सेवा में व्यवधान, अनिवार्य सेवानिवृत्ति, निलम्बन, सेवा समाप्ति या त्याग-पत्र;

(घ) किसी सेवानिवृत्त लोक सेवक की पेंशन का पूर्णतः या अंशतः रोका जाना या प्रत्याहरण करना, पेंशन से वसूली और पेंशन के लिए अवधि की गणना।

2. अवमानना के सभी मामले।

3. उपर्युक्त मामलों से सम्बन्धित आदेशों के विरुद्ध दावों के निर्देश का ग्रहण किया जाना।

Footnote

[1] उपधारा (4-क) उ0प्र0 अधिनियम संख्‍या 1 वर्ष 2015 द्वारा प्रतिस्‍थापित।

[2] उपधारा (8-ग) उ0प्र0 अधिनियम संख्‍या 1 वर्ष 2015 द्वारा प्रतिस्‍थापित।